तवाफ़-ए- फर्ज़/तवाफ़-ए-ज़ियारत

तवाफ़-ए- फर्ज़/तवाफ़-ए-ज़ियारत

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بِسْمِ اللّٰہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِیۡمِ

यह तवाफ़ हज का दूसरा रुक्न है इसके सात फेरे किये जायेंगे। अफ़ज़ल यह है कि दस तारीख़ को ही यह तवाफ़ करने के लिए मक्का-ए-मौअज़्ज़मा को जाएं। इसे तवाफ़-ए- ज़ियारत व तवाफ़-ए- इफ़ाज़ा भी कहते हैं।  मक्का-ए-मौअज़्ज़मा पहुँचकर पहले बताए गये तरीक़े के मुताबिक़ पैदल, बा-वुज़ू और सत्र ढक कर तवाफ़ करें मगर इस तवाफ़ में इज़्तिबा नहीं यानि दाहिना कंधा खोला नहीं जाता। अगर यह तवाफ़ नहीं किया तो हलाल नहीं होगें यानि कभी भी बीवी के पास नहीं जा सकते चाहे सालों गुज़र जायें।

 

तवाफ़-ए- ज़ियारत के कुछ ज़रूरी मसाइल

  • इस तवाफ़ में सात फेरे किये जायेंगे जिनमें चार फेरे फ़र्ज़ हैं कि बग़ैर उनके तवाफ़ होगा ही नहीं और न हज होगा और पूरे सात करना वाजिब, तो अगर चार फेरों के बाद जिमा किया तो हज हो गया मगर दम वाजिब होगा कि वाजिब तर्क हुआ।
  • इस तवाफ़ के सही होने के लिए यह शर्तें हैं कि पहले एहराम बाँधा हो, वुक़ूफ़ कर चुका हो और ख़ुद करे, अगर किसी और ने इसे कन्धे पर उठा कर तवाफ़ किया तो इसका तवाफ़ नहीं हुआ लेकिन अगर यह मजबूर हो ख़ुद न कर सकता हो मसलन बेहोश हो तो तवाफ़ हो गया।
  • बेहोश को पीठ पर लाद कर या किसी और चीज़ पर उठा कर तवाफ़ कराया और उसमें अपने तवाफ़ की भी नीयत कर ली तो दोनों के तवाफ़ हो गये अगर्चे दोनों के दो क़िस्म के तवाफ़ हों।
  • इस तवाफ़ का वक़्त दस (10) ज़िलहिज्जा की तुलू-ए-फ़ज्र (यानि फ़ज्र का वक़्त शुरू होने) से है इससे पहले नहीं हो सकता।
  • हर तवाफ़ में नीयत शर्त है अगर नीयत नहीं की तो तवाफ़ नहीं होगा जैसे कोई शख़्स किसी दुश्मन या दरिन्दे के डर से भाग कर ख़ाना-ए-काबा के चक्कर लगाए तो यह तवाफ़ नहीं हुआ।
  • वुक़ूफ़े अरफ़ा बग़ैर नीयत के भी हो जाता है मगर तवाफ़ बग़ैर नीयत नहीं होता।
  • नीयत करते में किसी ख़ास तवाफ़ (जैसे तवाफ़-ए- ज़ियारत वग़ैरा) की नीयत करना शर्त नहीं है बल्कि सिर्फ़ तवाफ़ की नीयत काफ़ी है।
  • ईदुल अज़्हा की नमाज़ वहाँ नहीं पढ़ी जायेगी।
  • हज-ए-क़िरान व हज-ए-इफ़राद करने वाले तवाफ़-ए- क़ुदूम में और हज-ए-तमत्तो करने वाले हज के एहराम के बाद किसी नफ़्ल तवाफ़ में हज के रमल व सई दोनों या सिर्फ़ सई कर चुके हों तो इस तवाफ़ में रमल व सई कुछ करने की ज़रूरत नहीं।
  • अगर पहले किए गए तवाफ़ में इन पाँचों सूरतों में से कोई सूरत हो तो रमल व सई दोनों इस तवाफ़-ए- फ़र्ज़ में करें।
    1. रमल व सई कुछ नहीं किया हो या
    2. सिर्फ़ रमल किया हो या
    3. जिस तवाफ़ में किये थे वह उमरा का था जैसे क़ारिन व मुतमत्तो का पहला तवाफ़ या
    4. वह तवाफ़ नापाकी की हालत में किया हो या
    5. शव्वाल का महीना शुरू होने से पहले के तवाफ़ में किये थे।
  • कमज़ोर और औरतें अगर भीड़ की वजह से दस (10) ज़िलहिज्जा को नहीं जा सकें तो उसके बाद ग्यारह (11) को अफ़ज़ल है, जो ग्यारह को न जा सकें तो बारह (12) को ज़रूर कर लें इसके बाद बिला उज़्र देर करना गुनाह है जुर्माने में एक क़ुरबानी करनी होगी।
  • अगर औरत को हैज़ या निफ़ास आ गया तो ह़ैज़ या निफ़ास ख़त्म होने के बाद तवाफ़ करे मगर हैज़ या निफ़ास से अगर ऐसे वक़्त पाक हुई कि नहा धोकर बारह (12) तारीख़ में सूरज डूबने से पहले-पहले चार फेरे कर सकती है तो करना वाजिब है, नहीं करेगी तो गुनाहगार होगी। इसी तरह अगर इतना वक़्त उसे मिला था कि तवाफ़ कर लेती और नहीं किया अब हैज़ या निफ़ास आ गया तो गुनाहगार हुई।
  • तवाफ़ के बाद दो रकअत ब-दस्तूर पढ़ें इस तवाफ़ के बाद औरतें हलाल हो जायेंगी और हज पूरा हो गया कि उसका दूसरा रुक्न यह तवाफ़ था।
  • अगर यह तवाफ़ नहीं किया तो औरतें हलाल नहीं होंगी चाहे सालों गुज़र जायें।
  • बिना वुज़ू या जनाबत में तवाफ़ किया तो एहराम से बाहर हो गया।
  • अगर उल्टा तवाफ़ किया यानि काबा के बाईं तरफ़ से तो भी औरतें हलाल हो गईं मगर जब तक मक्का में है इस तवाफ़ को दोहरा ले।
  • अगर नापाक कपड़ा पहन कर तवाफ़ किया तो मकरूह हुआ और इतना सत्र-ए-औरत खुला रहा जिससे नमाज़ न हो तो तवाफ़ हो जायेगा मगर दम लाज़िम है।
  • दसवीं, ग्यारहवीं, बारहवीं की रातें मिना ही में बसर करना सुन्नत है न कि मुज़दलफ़ा में, न मक्का में, न रास्ते में लिहाज़ा जो शख़्स दस या ग्यारह को तवाफ़ के लिए गया वापस आकर रात मिना ही में गुज़ारे।
  • अगर अपने आप मिना में रहा और सामान वग़ैरा मक्का को भेज दिया या मक्का ही में छोड़ कर अराफ़ात को गया तो अगर ख़राब होने या खो जाने का अन्देशा नहीं है तो कराहत है वरना नहीं।

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