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जुर्म और कफ़्फ़ारे
किसी शख़्स से कोई ऐसा काम हो जाए जो अहराम में या हज के किसी अमल में करना मना हो उसे “जुर्म” कहते हैं और उसकी सज़ा के तौर पर जो अमल करना होता है से उसे “कफ़्फ़ारा” कहते हैं जो शख़्स एहराम में जानबूझ कर बिना किसी शरई वजह के जुर्म करे तो कफ़्फ़ारा भी वाजिब है और गुनाहगार भी लिहाज़ा इस सूरत में तौबा वाजिब है सिर्फ़ कफ़्फ़ारे से पाक नहीं होंगे जब तक तौबा न करें। अनजाने में या किसी उ़ज़्र से है तो कफ़्फ़ारा काफ़ी है। जुर्म में कफ़्फ़ारा बहरहाल लाज़िम है चाहे याद से हो या भूल-चूक से, उसका जुर्म होना जानता हो या मालूम न हो, ख़ुशी से हो या मजबूरन, सोते में हो या जागते में, नशा या बेहोशी में हो या होश में, उसने अपने आप किया हो या दूसरे ने उसके हुक्म से किया। जुर्म और उनके कफ़्फ़ारे के बारे में तफ़्सीली और ज़रूरी जानकारी नीचे दिये गये आर्टिकल्स से हासिल कर सकते हैं-