सजदा-ए-सहव

सजदा-ए-सहव

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بِسْمِ اللّٰہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِیۡمِ

सजदा-ए-सहव कब वाजिब होता है?

जो चीज़ें नमाज़ में वाजिब हैं अगर उनमें से कोई वाजिब भूल से छूट जायें तो उनकी कमी को पूरा करने के लिए सजदा-ए-सहव करना वाजिब है।

सजदा-ए-सहव का तरीक़ा

इसका तरीक़ा यह है कि-

  • नमाज़ की आख़िरी रकअत में अत्तहीयात पढ़ने के बाद सिर्फ़ दाहिनी तरफ़ सलाम फेरें।
  • अब दो सजदे करें।
  • इसके बाद शुरू से अत्तहीयात, दुरूद शरीफ़ और फिर दुआ वग़ैरा सब पढ़ कर सलाम फेर दें।

 

वह सूरतों (Conditions) जिनमें सजदा-ए-सहव करने से नमाज़ सही नहीं होती,  बल्कि दोबारा पढ़ना ज़रूरी।

  • अगर नमाज़ में कोई वाजिब छूट गया और उसके लिए सजदा-ए-सहव नहीं किया और नमाज़ ख़त्म कर दी तो नमाज़ दोहराना वाजिब है।
  • जानबूझ कर कोई वाजिब छोड़ा तो सजदा-ए-सहव काफ़ी नहीं बल्कि नमाज़ दोहराना वाजिब है।
  • जो बातें नमाज़ में फ़र्ज़ हैं अगर उनमें से कोई बात छूट गई तो नमाज़ नहीं हुई और सजदा-ए-सहव से भी कमी पूरी नहीं की जा सकती बल्कि दुबारा से पढ़ना फ़र्ज़ है।

 

वह चीज़ें जिनके छूट जाने पर सजदा-ए-सहव नहीं बल्कि नमाज़ हो गई। मगर नमाज़ दोहराना बेहतर है।

  • वह बातें जो नमाज़ में सुन्नत हैं या मुस्तहब हैं जैसे तऊज़ (आऊज़ुबिल्लाह), तसमिया (बिसमिल्लाह), आमीन छूट जाने पर 
  • तकबीराते इंतक़ाल यानि नमाज़ के एक रुक्न से दूसरे रुक्न में जाते हुए कही जाने वाली तकबीर “अल्लाहु अकबर” छूट जाने पर।
  • सजदा और रुकू वग़ैरा में पढ़ी जाने वाली तस्बीहात वग़ैरा छूटने पर।

 

सजदा-ए-सहव के मुताल्लिक़ ज़रूरी मसाइल

  • अगर नमाज़ में कई वाजिब छूट गये तो एक ही बार सजदा-ए-सहव करना काफ़ी हैं।
  • क़ादा-ए-ऊला में पूरी अत्तहीयात पढ़ने के बाद तीसरी रकअत के लिए खड़े होने में इतनी देर कर दी कि जितनी देर में “अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मद” पढ़ सकें तो सजदा-ए-सहव वाजिब है चाहे कुछ पढ़े या ख़ामोश रहे दोनों सूरतों में सजदा-ए-सहव वाजिब है।
  • क़िरात वग़ैरा या किसी मौक़े पर सोचने लगा और इतनी देर हो गई कि तीन बार “सुब्हानल्लाह” कह सकें तो सजदा-ए-सहव वाजिब है।
  • दूसरी रकअत को चौथी समझ कर सलाम फेर दिया फिर याद आया तो बाक़ी रकअतें पूरी करके सजदा-ए-सहव करें।
  • कुछ देर तक अरकान भूल गया (जैसे क़िरात के बाद रुकू में जाने में देर हो गई) सजदा-ए-सहव वाजिब है।
  • मुक़तदी अत्तहीयात पूरी करने पाया था कि इमाम तीसरी रकअत के लिए खड़ा हो गया तो मुक़तदी पर वाजिब है कि वह अत्तहीयात पूरी करके खड़ा हो चाहे देर हो जाये।
  • मुक़तदी ने रुकू या सजदे में तीन बार तस्बीह नहीं कही थी कि इमाम ने सिर उठा लिया तो मुक़तदी भी सिर उठा ले बाक़ी तस्बीह छोड़ दे।
  • जिस शख़्स ने क़ादा-ए-ऊला न किया और तीसरी रकअत के लिए खड़ा होने लगा तो अगर अभी क़ादा के क़रीब है तो बैठ जाये और क़ादा पूरा करे नमाज़ सही है सजदा-ए- सहव भी लाज़िम न आया और अगर खड़ा होने के क़रीब है तो खड़ा ही हो जाये और आख़ीर में सजदा-ए-सहव करे।
  • अगर क़ादा-ए-आख़ीरा करना भूल गया और खड़ा हो गया तो जब तक उस रकअत का सजदा न किया तो उसे छोड़दे और बैठ जायें और नमाज़ पूरी करें और सजदा-ए-सहव करें और अगर उस रकअत का सजदा कर लिया हो तो फ़र्ज़ नमाज़ जाती रही और एक रकअत और मिलाये सिवाय मग़रिब के फिर ये सब नफ़िल हो जायेंगे फ़र्ज़ नमाज़ फिर से पढें।
  • अगर क़ादा-ए-आख़ीरा में तशहुद(अत्तहीयात) पढ़ने के बराबर बैठ गया और फिर भूल से खड़ा हो गया तो बैठ जाये जब तक उस रकअत का सजदा न किया हो और सलाम फेरे और सजदा-ए-सहव करे और अगर उस रकअत का सजदा कर लिया तो फ़र्ज़ जब भी पूरे हो गये लेकिन एक रकअत और मिलाये और सजदा-ए-सहव करे ये दोनो रकअतें नफ़िल हो जायेंगी लेकिन मग़रिब में न मिलायें।
  • एक रकअत में तीन सजदे किये या दो रुकू किये या क़ादा ऊला भूल गया तो सजदा-ए-सहव कर ले।
  • क़ियाम, रुकू, सुजूद, व क़ादा-ए-आख़ीरा में तरतीब फ़र्ज़ है लिहाज़ा अगर क़ियाम से पहले रुकू कर लिया फिर क़ियाम किया तो यह रुकू जाता रहा अब अगर क़ियाम के बाद फिर रुकू कर ले तो नमाज़ हो जाएगी वरना नहीं इसी तरह अगर रुकू से पहले सजदा करने के बाद रुकू फिर सजदा कर लिया तो नमाज़ हो जाएगी दोनों सूरतों में सजदा-ए-सहव भी करें।
  • नफ़िल का हर क़ादा, क़ादा-ए-आख़ीरा है यानि फ़र्ज़ है अगर क़ादा न किया और भूल कर खड़ा हो गया तो जब तक उस रकअत का सजदा न किया हो लौट आये और सजदा-ए- सहव करे और वाजिब नमाज़ मसलन वित्र फ़र्ज़ के हुक्म में है लिहाज़ा अगर वित्र का क़ादा-ए-ऊला भूल गया तो वही हुक्म है जो फ़र्ज़ के क़ादा-ए-ऊला भूलने का है।
  • दुआ-ए-क़ुनूत या तकबीर-ए-क़ुनूत भूल गया तो सजदा-ए- सहव करे तकबीर-ए-क़ुनूत का मतलब वह तकबीर जो दुआ-ए-क़ुनूत से पहले कही जाती है।
  • ईदैन की सब तकबीरें या बाज़ भूल गया या ज़्यादा कहीं या ग़ैर महल में कहीं (यानि जहाँ कहनी चाहिये थीं उसके बजाय कहीं और कह दीं ) इन सब सूरतों में सजदा-ए- सहव वाजिब है।

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