एहराम के मुताल्लिक़ ज़रूरी मसाइल

एहराम के मुताल्लिक़ ज़रूरी मसाइल

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بِسْمِ اللّٰہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِیۡمِ

 

  • तलबियह एक बार कहना एहराम की शर्त है और तीन बार कहना सुन्नत।
  • तलबियह के अल्फ़ाज़ को ज़ुबान से अदा करना भी शर्त है। अगर दिल में कहा और ज़ुबान से अदा न किया तो तलबियह नहीं हुआ और एहराम में दाख़िल नहीं हुआ।
  • तलबियह के लिये जो अल्फ़ाज़ बताए गए हैं इनमें कमी नहीं की जा सकती ज़्यादा कर सकते हैं बल्कि बेहतर है मगर ज़्यादती आख़िर में हो दरमियान में नहीं।
  • जो शख़्स ऊँची आवाज़ से लब्बैक कह रहा है तो उसको इस हालत में सलाम न किया जाये क्योंकि इस वक़्त सलाम मकरूह है और किसी ने अगर कर लिया तो सुनने वाले को चाहिए कि तलबियह ख़त्म करके जवाब दे। अगर जानता हो कि ख़त्म करने के बाद जवाब का मौक़ा न मिलेगा तो इस वक़्त जवाब दे सकता है।
  • एहराम के लिए नीयत शर्त है अगर बग़ैर नीयत तलबियह यानि लब्बैक… कहा एहराम न हुआ इसी तरह अकेले नीयत भी काफ़ी नहीं जब तक तलबियह न कहे।
  • एहराम के वक़्त तलबियह कहे तो उसके साथ नीयत भी हो यह भी याद रखना चाहिए कि नीयत दिल के इरादे को कहते हैं दिल में इरादा न हो तो एहराम ही नहीं हुआ।
  • तवाफ़-ए- क़ुदूम के सिवा एहराम के वक़्त से जुमरा की रमी तक जिस का ज़िक्र आगे आयेगा ज़्यादातर वक़्त तलबियह कहते रहें। उठते-बैठते, चलते-फिरते, वुज़ू-बेवुज़ू हर हाल में ख़ुसूसन चढ़ाई पर चढ़ते वक़्त और नीचे उतरते वक़्त, दो क़ाफ़िलों के मिलते वक़्त, सुबह व शाम, पिछली रात में, पाँचों नमाज़ों के बाद ग़र्ज़ यह कि हर हालत बदलने पर।
  • मर्द ब-आवाज़ कहें मगर इतनी ऊँची आवाज़ न करें कि ख़ुद को या दूसरे को तकलीफ़ हो और औरतें हल्की आवाज़ से, मगर इतनी आहिस्ता भी नहीं कि ख़ुद भी न सुनें।
  • अगर कुछ आदमी साथ हों तो कोई एक दूसरे के तलबियह पर तलबियह न कहे क्योंकि इससे दिल भटकता है और परेशान होता है।

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