तवाफ़ के मसाइल

तवाफ़ के मसाइल

0
902

بِسْمِ اللّٰہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِیۡمِ

  • पूरे तवाफ़ के दौरान वुज़ू क़ायम रहना ज़रूरी है। अगर तवाफ़ के पहले चार चक्करों में वुज़ू टूट जाए तो वुज़ू करके तवाफ़ दोबारा से शुरू करें और अगर चार चक्कर पूरे होने के बाद टूटा तो अपनी मर्ज़ी है चाहे दोबारा से करें या जहाँ छोड़ा था वहीं से तवाफ़ जारी रख कर पूरा करें।
  • कोई भी वाजिब तवाफ़ (जैसे तवाफ़-ए-विदा),सुन्नत तवाफ़ (जैसे तवाफ़-ए-क़ुदूम) या नफ़्ली तवाफ़ अगर बिना वुज़ू किया तो सदक़ा वाजिब होगा और अगर जनाबत की हालत में किया यानि ग़ुस्ल करना फ़र्ज़ था और बिना ग़ुस्ल किया तो उस पर “दम” (यानि बकरे वग़ैरा की क़ुरबानी) लाज़िम आयेगा।
  • उमरा का तवाफ़ अगर बिना वुज़ू या जनाबत की हालत में किया तो उस पर “दम” लाज़िम आयेगा।
  • तवाफ़-ए-ज़ियारत अगर बिना वुज़ू किया तो उस पर “दम” लाज़िम आयेगा और जनाबत की हालत में किया तो बदाना (यानि ऊँट वग़ैरा की क़ुरबानी) लाज़िम आयेगा।
  • तवाफ़ में तवाफ़ की नीयत फ़र्ज़ है बग़ैर नीयत तवाफ़ नहीं हो सकता मगर यह शर्त नहीं कि अलग-अलग क़िस्म के तवाफ़ की ख़ास तौर पर नीयत करें बल्कि हर तवाफ़ सिर्फ़ तवाफ़ की नीयत से अदा हो जाता है।
  • जिस तवाफ़ को किसी वक़्त में मुअय्यन (fixed) कर दिया गया है अगर उस वक़्त किसी दूसरे तवाफ़ की नीयत से किया तो यह दूसरा नहीं होगा बल्कि वह होगा जो मुअय्यन है मिसाल के तौर पर उमरा का एहराम बाँध कर बाहर से आया और तवाफ़ किया तो यह उमरा का तवाफ़ ही होगा चाहे नीयत में यह न हो। इसी तरह हज का एहराम बाँध कर बाहर वाला आया और तवाफ़ किया तो तवाफ़-ए-क़ुदूम ही होगा। या दसवीं तारीख़ को तवाफ़ किया तो तवाफ़-ए- ज़ियारत ही है चाहे इन सब में नीयत किसी और की हो।
  • यह तरीक़ा तवाफ़ का जो ज़िक्र हुआ अगर किसी ने इसके ख़िलाफ़ तवाफ़ किया तो जब तक मक्का-ए-मुअज़्ज़मा में है इस तवाफ़ का इआदा करे यानि लौटाये और अगर इआदा नहीं किया और वहाँ से चला आया तो दम वाजिब है।
  • तवाफ़ में ग़लत तरीक़े यह हो सकते हैं-
    • बायीं तरफ़ से तवाफ़ शुरू किया कि काबा-ए-मुअज़्ज़मा तवाफ़ करने में सीधे हाथ को रहा।
    • काबा-ए-मुअज़्ज़मा को मुँह या पीठ करके तिरछे चलते हुए तवाफ़ किया।
    • तवाफ़ हजर-ए-असवद से शुरू नहीं किया।
    • हतीम के अन्दर से तवाफ़ करना नाजाइज़ है लिहाज़ा इसका भी इआदा करें। बेहतर है कि पूरा तवाफ़ लौटा लें।
  • तवाफ़ सात फेरों पर ख़त्म हो गया अब अगर आठवाँ फेरा जान-बूझ कर शुरू कर दिया तो यह एक नया तवाफ़ शुरू हो गया लिहाज़ा इसे भी अब सात फेरे करके ख़त्म करें।
  • अगर सिर्फ़ वहम या वसवसे की वजह से आठवाँ फेरा शुरू किया कि शायद अभी छः ही हुए हों जब भी उसे सात फेरे करके ख़त्म करें, लेकिन अगर इस आठवें को सातवाँ समझ लिया और बाद में मालूम हुआ कि सात हो चुके हैं तो इसी पर ख़त्म कर दें सात पूरे करने की ज़रूरत नहीं।
  • तवाफ़ के फेरों में शक पड़ गया तो अगर यह फ़र्ज़ या वाजिब है तो अब फिर से सात फेरे करें और अगर किसी एक आदिल शख़्स ने बता दिया कि इतने फेरे हुए तो उसके क़ौल पर अमल कर लेना बेहतर है और दो आदिल ने बताया तो उनके कहने पर ज़रूर अमल करें और तवाफ़ अगर फ़र्ज़ या वाजिब नहीं है तो ग़ालिब गुमान पर अमल करें।
  • काबा-ए-मुअज़्ज़मा का तवाफ़ मस्जिद-ए-हराम शरीफ़ के अन्दर होगा अगर मस्जिद के बाहर से तवाफ़ किया तो नहीं हुआ।
  • तवाफ़ करते-करते जनाज़े की नमाज़, फ़र्ज़ नमाज़ या नया वुज़ू करने के लिए चला गया तो वापस आकर उसी पहले तवाफ़ पर “बिना” करें यानि जिस फेरे पर और जिस जगह से तवाफ़ छोड़ा है वहीं से फिर शुरू करें तवाफ़ पूरा हो जायेगा, पूरा तवाफ़ दोबारा से करने की ज़रूरत नहीं है। अगर पूरा तवाफ़ दोबारा से किया जब भी हर्ज नहीं और इस सूरत में उस पहले को पूरा करना ज़रूरी नहीं है और अगर “बिना” करे तो जहाँ से छोड़ा था वहीं से शुरू करे हजर-ए-असवद से शुरू करने की ज़रूरत नहीं। यह सब उस वक़्त है जबकि पहले चार फेरे से कम किये थे और चार फेरे या ज़्यादा किये थे तो बिना ही करे।
  • रमल उस तवाफ़ में सुन्नत है जिसके बाद सई हो लिहाज़ा अगर तवाफ़-ए- क़ुदूम यानि पहले वाले तवाफ़ के बाद की सई तवाफ़-ए-ज़ियारत से बाद में करें तो तवाफ़-ए-क़ुदूम में रमल नहीं।
  • तवाफ़ के सातों फेरों में इज़्तिबाह यानि दाहिने कंधे को खोलना सुन्नत है और तवाफ़ के बाद इज़्तिबाह न करें यहाँ तक कि तवाफ़ के बाद की नमाज़ में अगर इज़्तिबाह किया तो मकरूह है और इज़्तिबाह सिर्फ़ उसी तवाफ़ में है जिसके बाद सई हो और अगर तवाफ़ के बाद सई नहीं हो तो इज़्तिबाह भी नहीं।
  • नमाज़ में इज़्तिबाह करना मकरूह है
  • तवाफ़ की हालत में ख़ासतौर पर ऐसी बातों से परहेज़ रखें जिन्हें शरीअत-ए- मुताहिरा पसन्द नहीं करती जैसे-
    • मर्द-औरत किसी की तरफ़ बुरी निगाह न करें।
    • किसी में अगर कुछ ऐब हो या वह ख़राब हालत में हो तो हिक़ारत की नज़र से उसे न देखें।
    • उसे भी नज़रे हिक़ारत से न देखे जो अपनी नादानी की वजह से अरकान ठीक अदा नहीं करता बल्कि ऐसे को निहायत नरमी के साथ समझा दें।

NO COMMENTS

LEAVE A REPLY