بِسْمِ اللّٰہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِیۡمِ
दीन-ए-इस्लाम में सख़्ती नहीं है। दीन के जो भी अहकाम हैं उनमें इन्सान की उम्र, सेहत, तंदरूस्ती और हालात के मुताबिक़ छूट दी जाती है। इसी तरह कुछ हालतें ऐसी भी हैं जिनमें रोज़ा छोड़ने की इजाज़त है।
हदीस-ए-नबवी گ
- अल्लाह तआला ने मुसाफ़िर से आधी नमाज़ माफ़ फ़रमा दी (यानि चार रकअत वाली दो पढ़े) और मुसाफ़िर, दूध पिलाने वाली और हामिला (गर्भवती) से रोज़ा माफ़ फ़रमा दिया (इनको इजाज़त है कि उस वक़्त छोड़कर बाद में गिनती पूरी कर लें।)
(अबू दाऊद व तिर्मिज़ी व निसाई व इब्ने माजा अनस इब्ने मालिक कअबीک से रिवायत)
इन लोगों को रमजान में रोज़ा न रखने की छूट है और रोज़ा छोड़ने पर गुनाहगार नहीं होंगे
- मुसाफ़िर
- बीमार
- हामिला (गर्भवती) औरत ।
- बच्चे को दूध पिलाने वाली औरत ।
- बूढ़ा शख़्स ।
- वह शख़्स जिसको मौत का या सख़्त तकलीफ़/नुक़सान का डर हो।
- जिहाद में शामिल शख़्स।
ज़रूरी मसाइल
- सफ़र का मतलब सफ़र-ए-शरई है यानि इतनी दूर जाने के इरादे से निकले कि तीन दिन की मसाफ़त (दूरी) हो । ज़मीन पर चलने के हिसाब से इसकी दूरी साड़े सत्तावन मील (57½) यानि लगभग (92.5 KM) किलो मीटर है।
- रोज़ा रखने के बाद दिन में सफ़र किया तो इस सफ़र की वजह से उस दिन का रोज़ा तोड़ने का हुक्म नहीं अगर तोड़ेगा तो गुनाहगार होगा मगर कफ़्फ़ारा लाज़िम नहीं आयेगा और अगर सफ़र करने से पहले तोड़ दिया फिर सफ़र किया तो कफ़्फ़ारा भी लाज़िम और अगर दिन में सफ़र किया और मकान पर कोई चीज़ भूल गया था उसे लेने वापस आया और मकान पर आकर रोज़ा तोड़ डाला तो कफ़्फ़ारा वाजिब है।
- मुसाफ़िर ज़वाल का वक़्त शुरू होने से पहले कहीं ठहर गया और अभी कुछ खाया- पिया नहीं तो उस पर वाजिब है कि रोज़े की नीयत कर ले और रोज़ा पूरा करें।
- मरीज़ को मर्ज़ बढ़ जाने या देर में अच्छा होने या तन्दरुस्त को बीमार हो जाने का गुमान ग़ालिब हो या ख़ादिम व ख़ादिमा को ना-क़ाबिले बर्दाश्त कमज़ोरी का ग़ालिब गुमान हो तो उन सब को इजाज़त है कि उस दिन रोज़ा न रखें।
- इन सूरतों में ग़ालिब गुमान की क़ैद है सिर्फ़ वहम या ख़्याल काफ़ी नहीं है। ग़ालिब गुमान की तीन सूरतें हैं –
- उसकी ज़ाहिर निशानियाँ पाई जाती हो ।
- उस शख़्स ने ख़ुद यह आज़माया हो यानि ज़ाती तजुर्बा हो ।
- किसी मुसलमान हकीम/डाक्टर जो फ़ासिक (खुले आम गुनाह करने वाला) न हो , उसने यह ख़बर दी हो ।
अगर न कोई अलामत हो ,न तजुर्बा, न किसी मुसलमान हकीम/डाक्टर ने उसे बताया बल्कि किसी ग़ैर मुस्लिम या फ़ासिक़ हकीम/डाक्टर के कहने से इफ़्तार कर लिया तो कफ़्फ़ारा लाज़िम हो जायेगा।
- हैज़ या निफ़ास की वजह से जो औरत रोज़ा छोड़े उसे इख़्तियार है कि छिप कर खाये या ज़ाहिर में, रोज़ा की तरह रहना उस पर ज़रूरी नहीं मगर छिप कर खाना ज़्यादा अच्छा है ख़ास तौर पर हैज़ वाली के लिए।
- भूख और प्यास ऐसी हो कि हलाक यानि मौत होने का सही डर या अक़्ल जाती रहने का अन्देशा हो तो रोज़ा न रखना जाइज़ है। इससे वह लौग सबक़ लें जो शुगर कि वजह से रोज़ा छोड़ देते हैं।
- जिन लोगों ने किसी उज़्र (शरई वजह) से रोज़ा तोड़ा उन पर फ़र्ज़ है कि उन रोज़ों की क़ज़ा रखें और इन क़ज़ा रोज़ों में तरतीब फ़र्ज़ नहीं मगर हुक्म यह है कि उज़्र जाने के बाद दूसरे रमज़ान के आने से पहले क़ज़ा रख लें। हदीस शरीफ़ में है कि जिस पर पिछले रमज़ान के क़ज़ा रोज़े बाक़ी हैं और वह न रखे उसके इस रमज़ान के रोज़े क़बूल न होंगे।
- मुसाफ़िर को और उसके साथ वाले को रोज़ा रखने में नुक़सान न पहुँचे तो रोज़ा रखना सफ़र में बेहतर है।
- जो लोग किसी उज़्र से रोज़े न रख पायें और उसी उज़्र में मौत हो गई, इतना मौक़ा नहीं मिला कि क़ज़ा रखते तो उनके वारिसों पर यह वाजिब नहीं कि फ़िद्या अदा करें लेकिन अगर वह वसीयत कर जायें तो उनके तिहाई माल में से फ़िदया अदा करें और अगर इतना मौक़ा मिला कि क़ज़ा रोज़े रख लेते मगर न रखे तो फ़िदया अदा करने की वसीयत करना जाना वाजिब है और जानबूझ कर न रखे हों तो वसीयत करना और सख़्त वाजिब है और वसीयत न की बल्कि वली ने अपनी तरफ़ से दे दिया तो भी जाइज़ है मगर वली पर देना वाजिब नहीं।
- एक रोज़े का फ़िदया एक शख़्स के सदक़ा-ए-फ़ित्र के बराबर है यानि 2 किलो 45 ग्राम गेहूँ या इनकी क़ीमत।
- वसीयत करना सिर्फ़ उतने ही रोज़ों के लिये वाजिब है जिन रोज़ों के रखने पर क़ादिर हुआ था मसलन दस क़ज़ा हुये थे और उज़्र जाने के बाद पाँच पर क़ादिर हुआ था कि इन्तिक़ाल हो गया तो पाँच ही की वसीयत है।
- एक शख़्स की तरफ़ से दूसरा शख़्स रोज़ा नहीं रख सकता।
- वह बूढ़ा शख़्स जिसकी उम्र ऐसी हो गई कि दिनों-दिन कमज़ोर होता जा रहा है और उसमें इतनी ताक़त नहीं रही कि रोज़ा रख सके और न ही आइन्दा उसमें इतनी ताक़त आने की उम्मीद है कि रोज़ा रख सकेगा उसे रोज़ा न रखने की इजाज़त है, और हर रोज़े के बदले में फ़िदया यानि दोनों वक़्त एक मिस्कीन को भर पेट खाना खिलाना उस पर वाजिब है या हर रोज़े के बदले में सदक़ा-ए-फ़ित्र के बराबर किसी मिस्कीन को दें।
- अगर फ़िदया देने के बाद इतनी ताक़त आ गई कि रोज़ा रख सके तो फ़िदया सदक़ा-ए-नफ़्ल हो जायेगा और उन रोज़ों की क़ज़ा रखी जायेगी।
- नफ़्ल रोज़ा क़सदन शुरू करने से लाज़िम हो जाता है अगर तोड़ेगा तो क़ज़ा वाजिब होगी।
- नफ़्ल रोज़ा क़सदन नहीं तोड़ा बल्कि बिला इख़्तियार टूट गया मसलन रोज़े के दरमियान में हैज़ आ गया जब भी क़ज़ा वाजिब है।
- ईदैन या अय्यामे तशरीक़ (बक़रईद और उसके बाद के तीन दिन को अय्यामे तशरीक़ कहते हैं) में रोज़ा नफ़्ल रखा तो उस रोज़े का पूरा करना वाजिब नहीं न उसके तोड़ने से क़ज़ा वाजिब बल्कि इस रोज़े का तोड़ देना वाजिब है।
- जिस शख़्स ने नफ़्ल रोज़ा रखा और उसके किसी भाई ने दावत की तो ज़हवा-ए-कुबरा से पहले नफ़्ल रोज़ा तोड़ देने की इजाज़त है।
- औरत बग़ैर शौहर की इजाज़त के नफ़्ल और मन्नत व क़सम के रोज़े न रखे और रख ले तो शौहर तुड़वा सकता है मगर तोड़ेगी तो क़ज़ा वाजिब होगी मगर उसकी क़ज़ा में भी शौहर की इजाज़त ज़रूरी है।
- अगर रोज़ा रखने में शौहर का कुछ हर्ज न हो मसलन वह सफ़र में है या बीमार है या एहराम में है तो इन हालतों में बग़ैर इजाज़त के भी क़ज़ा रख सकती है बल्कि अगर वह मना करे जब भी और इन दिनों में भी बिना उसकी इजाज़त के नफ़्ल नहीं रख सकती।
रमज़ान और रमज़ान के क़ज़ा रोज़ों के लिए शौहर की इजाज़त की कोई ज़रूरत नहीं बल्कि उसकी मनाही पर भी रखे।