रोज़ा तोड़ने का कफ़्फ़ारा

रोज़ा तोड़ने का कफ़्फ़ारा

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بِسْمِ اللّٰہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِیۡمِ

कोई शख़्स जिस पर रोज़ा रखना फ़र्ज़ हो रमज़ान का रोज़ा रखने के बाद जानबूझ कर कोई ऐसा काम करे जिससे रोज़ा टूट जाता है तो उस पर क़ज़ा के साथ कफ़्फ़ारा भी लाज़िम होता है।

क़ज़ा के साथ कफ़्फ़ारा कब लाज़िम होता है?

  • जिमा (संभोग) करने से, चाहे मनी निकली हो या नहीं।
  • औरत को छूने, बोसा लेने, साथ में लिटाने या शर्मगाहों (Private parts) को मिलाने की वजह से इन्ज़ाल होने ‌यानि मनी निकलने पर।
  • पानी पीने से।
  • मज़े या ताक़त के लिये कुछ खाने-पीने से ।
  • जिस जगह रोज़ा तोड़ने से कफ़्फ़ारा लाज़िम आता है उसमें शर्त यह है कि रात ही से रमज़ान के रोज़े की नीयत की हो अगर दिन में नीयत की और तोड़ दिया तो कफ़्फ़ारा लाज़िम नहीं जैसे कोई मुसाफ़िर सुबह सादिक़ (फ़ज्र) के बाद ज़हवा-ए-कुबरा (ज़वाल) से पहले अपने शहर को वापस आया और रोज़े की नीयत कर ली फिर तोड़ दिया तो कफ़्फ़ारा नहीं।
  • कफ़्फ़ारा लाज़िम होने के लिए भर पेट खाना ज़रूरी नहीं थोड़ा सा खाने से भी वाजिब हो जायेगा।
  • किसी शख़्स ने तेल लगाया, ग़ीबत की या कोई ऐसा काम किया कि जिससे रोज़ा नहीं टूटता मगर इसने यह गुमान कर लिया कि रोज़ा टूट गया या किसी आलिम ने भी रोज़ा टूटने का फ़तवा दे दिया और उसके बाद अब उसने कुछ खा-पी लिया जब भी कफ़्फ़ारा लाज़िम हो गया।
  • थूक कर चाट गया या दूसरे का थूक निगला तो कफ़्फ़ारा नहीं मगर महबूब का लुआब (थूक) लज़्ज़त के लिये या किसी दीनी हस्ती जैसे पीर या आलिम का लुआब तबर्रुक के लिए निगला तो कफ़्फ़ारा लाज़िम है।
  • जिन सूरतों में रोज़ा तोड़ने पर कफ़्फ़ारा लाज़िम नहीं उनमें यह शर्त है कि एक ही बार ऐसा हुआ हो और गुनाह का इरादा न हो वरना उसमें भी कफ़्फ़ारा है।
  • कच्चा गोश्त चाहे मुर्दार का हो खाने से कफ़्फ़ारा लाज़िम हो जाता है।
  • मिट्टी खाने की आदत की वजह से मिट्टी खाई तो कफ़्फ़ारा वाजिब है।
  • नमक अगर थोड़ा खाया तो कफ़्फ़ारा वाजिब है ज़्यादा खाया तो नहीं।
  • पेड़ के पत्ते या सब्ज़ियाँ जो खाई जाती हैं उनके खाने से कफ़्फ़ारा वाजिब है।
  • कच्चे चावल बाजरा, मसूर, मूंग खाई तो कफ़्फ़ारा नहीं यही हुक्म कच्चे जौ का है और भुने हुए हों तो कफ़्फ़ारा लाज़िम है।
  • तिल या तिल बराबर खाने की कोई चीज़ बाहर से मुँह में डाल कर बग़ैर चबाये निगल गया तो रोज़ा गया और कफ़्फ़ारा वाजिब।
  • सहरी का वक़्त ख़त्म होने पर या भूलकर खाते में याद आने पर पर मुँह का निवाला निगल लिया तो दोनों सूरतों में कफ़्फ़ारा वाजिब है। लेकिन मुँह से निकाल कर फिर खाया हो तो सिर्फ़ क़ज़ा वाजिब होगी कफ़्फ़ारा नहीं।

रोज़ा तोड़ने का कफ़्फ़ारा

  1. अगर हो सके तो एक बांदी या ग़ुलाम आज़ाद करें।

(नोटः- इस्लाम ही वह मज़हब है जिसने सबसे पहले ग़ुलाम प्रथा को ख़त्म करने की शुरूआत की। इस मक़सद को हासिल करने के लिये शरीयत के क़ानून बनाकर और दुनिया व आख़िरत के इनामात बताकर  ग़ुलामी की ज़ंज़ीरों में जकड़े हुए लोगों को आज़ाद कराने के लिये लोगों को तरग़ीब दी यानि motivate किया। यहाँ पर क़सदन रोज़ा तोड़ने के जुर्माने के तौर पर ग़ुलाम या बांदी को आज़ाद करने का हुक्म फ़रमाने मे भी यही हिकमत है।)

या

  1. लगातार साठ रोज़े रखें, एक रोज़ा भी छूट गया तो दोबारा से साठ रोज़े रखने होंगे। पहले के रोज़े गिनती में नहीं आयेंगे चाहे बीमारी या किसी मजबूरी की वजह से ही छूटा हो। औरत को हैज़ की वजह से बीच में रोज़े छूट जायें तो पाक होने पर बाक़ी रोज़े रखकर साठ पूरे करने से कफ़्फ़ारा अदा हो जायेगा।

 या

  1. साठ मिसकीनों को भर पेट दोनों वक़्त खाना खिलायें ।

अगर दो रोज़े तोड़े तो दोनों के लिए दो कफ़्फ़ारे दे (जबकि दोनों दो रमज़ान के हों), अगर दोनों रोज़े एक ही रमज़ान के हों और पहले का कफ़्फ़ारा अदा न किया हो तो एक ही कफ़्फ़ारा  दोनों के लिए काफ़ी है।

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