वह बातें जिन से नमाज़ टूट जाती है

वह बातें जिन से नमाज़ टूट जाती है

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بِسْمِ اللّٰہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِیۡمِ

  • नमाज़ में बातचीत करने से नमाज़ टूट जाती है। जानबूझ कर हो या ग़लती से या भूल से या किसी के बात करने पर मजबूर करने की वजह से या उसको यह मालूम न था कि बातचीत करने से नमाज़ टूट जाती है।
  • बातचीत में कम या ज़्यादा का कोई फ़र्क़ नहीं। अगर कोई बात नमाज़ के सही करने के लिये भी कही गई जैसे इमाम की भूल बताने की नीयत से कुछ कहा हो जब भी नमाज़ जाती रही।
  • आख़िरी रकअत में जानबूझ कर बातचीत करने से नमाज़ उसी वक़्त फ़ासिद होगी जब कि तशह्हुद पढ़ने के बराबर न बैठा हो और अगर इतनी देर बैठ चुका है तो नमाज़ पूरी हो गई लेकिन मकरूहे तहरीमी हुई दोहराना बेहतर है।
  • नमाज़ उस बात से फ़ासिद होगी जिसमें इतनी आवाज़ हो कि कम से कम वह ख़ुद सुन सके अगर कोई रुकावट न हो, जैसे कोई शोर ग़ुल वग़ैरा और अगर इतनी आवाज़ भी न हो बल्कि सिर्फ़ क़िरात या तस्बीहात के अल्फ़ाज़ को सही करने के लिए हो तो नमाज़ फ़ासिद नहीं होगी।
  • नमाज़ पूरी होने से पहले भूल कर सलाम फेर दिया तो हर्ज नहीं और जानबूझ कर फेरा तो नमाज़ जाती रही।
  • किसी शख़्स को सलाम किया या जवाब दिया जानबूझ कर हो या भूल कर नमाज़ फ़ासिद हो गई दोबारा पढ़ें। हाथ के इशारे से दिया तो मकरूह है।
  • इशा की नमाज़ को तरावीह समझ कर, ज़ुहर को जुमा समझ कर या अपने को मुसाफ़िर समझ कर दो रकअत पर सलाम फेर दिया तो नमाज़ फ़ासिद हो गई दोबारा पढें। लेकिन दूसरी रकअत को चौथी समझ कर सलाम फेरा तो नमाज़ पूरी करके सजदा-ए- सहव करें।
  • नमाज़ी किसी बात का जवाब सिर या हाथ से हाँ या नहीं का इशारा करके दे तो नमाज़ फ़ासिद नहीं हुई, मकरूह हुई ।
  • किसी को छींक आने पर जवाब में नमाज़ी ने “यरहमुकल्लाह” या जवाब की नीयत से “अलहम्दुलिल्लाह” कहा नमाज़ फ़ासिद हो गई और ख़ुद उसी को छींक आई और अपने को मुख़ातिब करके कहा तो फ़ासिद न हुई।
  • नमाज़ में छींक आई किसी दूसरे ने “यरहमुकल्लाह” कहा और उसने जवाब में कहा आमीन नमाज़ फ़ासिद हो गई।
  • किसी ख़ास मौक़ों पर कहे जाने वाले कलमें जैसे ख़ुशी पर “अलहम्दुलिल्लाह” ताज्जुब पर “सुब्हानल्लाह” या “ला इलाहा इल्लल्लाह” या “अल्लाहु अकबर” कहा नमाज़ फ़ासिद हो गई और अगर जवाब की नीयत से न कहा बल्कि यह ज़ाहिर करने के लिये कि नमाज़ में है तो फ़ासिद नहीं हुई।
  • बुरी ख़बर सुनकर “इन्ना लिल्लाहि व इन्ना इलेही राजिऊन” पढ़ा या किसी बात के जवाब में क़ुरआन के किसी लफ़्ज़ से किसी को जवाब दिया नमाज़ फ़ासिद हो गई।
  • अल्लाह तआला का नाम-ए-मुबारक सुनकर “जल्ला जलालुहू” कहा या नबी گ का नाम-ए-मुबारक सुनकर दुरूद पढ़ा या इमाम की क़िरात सुनकर “सदा-क़ल्लाहु” वग़ैरा कहा तो इन सब सूरतों में नमाज़ टूट गई जबकि जवाब के इरादे से कहा हो और अगर जवाब में न कहा तो हर्ज नहीं। इसी तरह अगर अज़ान का जवाब दिया नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी।
  • शैतान का ज़िक्र सुनकर उस पर लानत भेजी नमाज़ जाती रही वसवसा के दूर करने के लिये लाहौल पढ़ी अगर दुनिया के काम के लिये है नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी और आख़िरत के लिये तो नहीं।
  • चाँद देखकर “रब्बी व रब्बुकल्लाह” कहा या बुख़ार वग़ैरा की वजह से कुछ क़ुरआन पढ़कर दम किया नमाज़ फ़ासिद हो गई। बीमार ने उठते बैठते तकलीफ़ और दर्द पर बिस्मिल्लाह कही तो नमाज़ फ़ासिद न हुई।
  • आह, ओह, उफ़, तुफ़ यह अल्फ़ाज़ दर्द या मुसीबत की वजह से निकले या आवाज़ से रोया और कुछ आवाज़ पैदा हुई इन सब सूरतों में नमाज़ जाती रही और अगर रोने में सिर्फ़ आंसू निकले आवाज़ व कोई लफ़्ज़ नहीं निकला तो हर्ज नहीं।
  • मरीज़ की ज़बान से बेइख़्तियार आह, ओह निकला नमाज़ फ़ासिद न हुई इसी तरह छींक, खांसी, जमाही, डकार में जो लफ़्ज़ मजबूरन निकलते हैं माफ़ हैं।
  • इमाम का पढ़ना पसन्द आया और उसकी अच्छी आवाज़ पर रोने लगा और अरे या नअम (हाँ) ज़बान से निकाला नमाज़ जाती रही।
  • नमाज़ में देखकर क़ुरआन पढ़ने से नमाज़ फ़ासिद हो जाती है चाहे क़ुरआन शरीफ़ में देखे या मेहराब/दीवार पर लिखा हो।
  • अमल-ए-कसीर से नमाज़ टूट जाती है। कोई ऐसा काम जो नमाज़ से न हो, जिसको करते देखकर दूर से देखने वाला यह समझे कि नमाज़ नहीं पढ़ रहा उससे नमाज़ टूट जाती है। ऐसे काम को “अमल-ए-कसीर” कहते है। अगर दूर से देखने वाले को शुबह व शक हो कि नमाज़ में है या नहीं तो उसको “अमल-ए-क़लील” कहते हैं। अमल-ए-क़लील से नमाज़ नहीं टूटती|
  • नमाज़ में कुर्ता या पाजामा पहना या तहबंद बांधा इनसे नमाज़ टूट जाती है।
  • एक के बाद एक तीन बाल उखेड़े या तीन जुएँ मारीं या एक ही जूँ को तीन बार में मारा नमाज़ टूट गई, और लगातार न हो तो नमाज़ फ़ासिद नहीं होगी मगर मकरूह है।
  • मोज़ा पहनने से नमाज़ टूट जाती है । मोज़ा खुला हुआ है उसे उतारने से नमाज़ फ़ासिद नहीं होगी।
  • एक रुक्न में तीन बार खुजाने से नमाज़ फ़ासिद हो जाती है। अगर एक बार हाथ रखकर कई बार हरकत दी तो एक ही बार खुजाना कहा जायेगा।
  • नमाज़ के दौरान खाना पीना नमाज़ को फ़ासिद कर देता है चाहे जानबूझ कर हो या भूल से थोड़ा हो या ज़्यादा यहाँ तक कि अगर तिल बग़ैर चबाये निगल लिया या कोई क़तरा उसके मुँह में गिरा और उसने निगल लिया नमाज़ टूट जाती है।
  • दाँतों के अंदर खाने की कोई चीज़ फँसी थी उसको निगल लिया तो अगर वह चने से कम हो तो नमाज़ फ़ासिद नहीं हुई लेकिन मकरूह हो गई और चने बराबर है तो फ़ासिद हो गई।
  • दाँतों से ख़ून निकला तो अगर थूक ज़्यादा है तो निगलने से फ़ासिद नहीं होगी और ख़ून ज़्यादा है तो फ़ासिद हो जायेगी। ख़ून ज़्यादा होने की पहचान यह है कि हलक़ में ख़ून का मज़ा महसूस हो। नमाज़ और रोज़ा तोड़ने में मज़े का ऐतबार है और वुज़ू तोड़ने में रंग का।
  • मुँह में शकर वग़ैरा डाली जो घुलकर हलक़ में पहुँचती है इससे नमाज़ फ़ासिद हो गई। गोंद मुँह में है अगर चबाया और थोड़ा सा हलक़ से उतर गया नमाज़ टूट जायेगी।
  • नापाक जगह पर बग़ैर कोई पाक चीज़ बिछाए हुए सजदा किया नमाज़ फ़ासिद हो गई।
  • जिस्म या कपड़े में इतनी नापाकी लग गई हो जिससे नमाज़ नहीं होती और उसी में पूरा रुक्न अदा कर लिया या तीन बार “सुब्हानल्लाह” कहने के बराबर वक़्त गुज़र गया तो नमाज़ फ़ासिद हो गई।
  • सत्र खुलने से नमाज़ टूट जाती है। जानबूझ कर सत्र खोलना बिल्कुल नमाज़ को फ़ासिद कर देता है चाहे फ़ौरन ढक ले उसमें वक़्त का कोई लिहाज़ नहीं।
  • भीड़ की वजह से तीन बार “सुब्हानल्लाह” कहने के बराबर वक़्त तक औरतों की सफ़ में चला गया या इमाम से आगे हो गया नमाज़ टूट गई।
  • क़िब्ले से रुख़ फेरने से नमाज़ फ़ासिद हो जाती है। बिना किसी शरई मजबूरी के क़िब्ले से रुख़ फेरने से नमाज़ फ़ासिद हो जाती है। रुख़ फेरने का मतलब है कि सीना ख़ास काबे की सिम्त से 45 डिग्री हट जाये।
  • किसी नमाज़ी को किसी जानवर ने एक दम तीन क़दम के बराबर खींच लिया या ढकेल दिया तो नमाज़ फ़ासिद हो गई।
  • साँप, बिच्छू मारने से नमाज़ नहीं टूटती जबकि न तीन क़दम चलना पड़े न तीन बार मारना पड़े और अगर तीन क़दम चल कर या तीन बार में साँप, बिच्छू वग़ैरा को मारा तो नमाज़ जाती रहेगी। मगर मारने की इजाज़त है चाहे नमाज़ फ़ासिद हो जाये।
  • साँप, बिच्छू को नमाज़ में मारना उस वक़्त मुबाह (जाइज़) है कि सामने से गुज़रे और तकलीफ़ देने का ख़ौफ़ हो और अगर तकलीफ़ पहुँचाने का अंदेशा न हो तो मकरूह है।
  •  तकबीराते इंतक़ाल (‌यानि एक रुक्न से दूसरे रुक्न में जाने के लिये “अल्लाहु अकबर” कहना) इसमें अल्लाह या अकबर में अलिफ़ को बढ़ा कर आल्लाह या आकबर कहा या बे के बाद अलिफ़ बढ़ाया यानि अकबार कहा नमाज़ फ़ासिद हो जायेगी और तहरीमा में ऐसा हुआ तो नमाज़ शुरू ही न हुई।

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