بِسْمِ اللّٰہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِیۡمِ
नमाज़ में वाजिब चीज़ों को जानबूझ कर छोड़ना गुनाह है और नमाज़ दोबारा पढ़ी जायेगी। भूले से कोई वाजिब अगर छूट जाये तो “सजदा-ए-सहव” करने से नमाज़ सही हो जाती है।
नमाज़ के वाजिबात यह हैं –
- तकबीरे तहरीमा में “अल्लाहु अकबर’’ कहना।
- सूरह फ़ातिहा पूरी पढ़ना। इसमें से एक आयत बल्कि एक लफ़्ज़ छोड़ना भी वाजिब का छोड़ना है।
- अलहम्द शरीफ़ पढ़ने के बाद क़ुरआन पाक की कोई एक छोटी सूरह या तीन छोटी आयतें या एक या दो आयतें जो तीन छोटी आयतों के बराबर हों पढ़ना।
- फ़र्ज़ नमाज की दो पहली रकअतों में क़िरात करना (क़िरात का मतलब है अलहम्द शरीफ़ के साथ क़ुरआन पाक की कोई सूरह या कुछ आयतों कि तिलावत करना)।
- फ़र्ज़ की पहली दो रकअतों में और दूसरी नमाज़ों (यानि सुन्नत, वित्र, नफ़्ल) की हर रकअत में सूरह फ़ातिहा के साथ दूसरी सूरह मिलाना।
- सूरह फ़ातिहा का दूसरी सूरह से पहले होना।
- हर रकअत में दूसरी सूरह से पहले एक ही बार सूरह फ़ातिहा पढ़ना।
- सूरह फ़ातिहा व दूसरी सूरह के दरमियान “आमीन” कहने और “बिस्मिल्लाह हिर्रहमाँ निर्रहीम” पढ़ने के अलावा कुछ और न पढ़ना।
- क़िरात के बाद फ़ौरन रुकू करना।
- एक सजदे के बाद दूसरा सजदा होना कि दोनों के दरमियान कोई और रुक्न न हो।
- इत्मिनान से सब अरकान अदा करना यानि रुकू व सुजूद व क़ौमा व जलसा में कम से कम एक बार “सुब्हानल्लाह” कहने की बराबर ठहरना।
- रुकू के बाद सीधा खड़ा होना इसे “क़ौमा” कहते हैं।
- दो सजदों के दरमियान सीधा बैठना इसे “जलसा” कहते हैं।
- क़ादा-ए-ऊला (दूसरी रकअत के बाद बैठ कर अत्तहीय्यात पढ़ना) चाहे नफ़्ल नमाज़ हो।
- फ़र्ज़, वित्र और सुन्नत-ए-मौअक्कदा में क़ादा-ए-ऊला में अत्तहीय्यात पर कुछ न बढ़ाना। अगर भूल में दुरूद शरीफ़ शुरू कर दिया और “अल्लाहुम्मा सल्लि अला मुहम्मादिन” तक पढ़ लिया तो सजदा-ए-सहव करना वाजिब है और जानबूझ कर पढ़ा तो नमाज़ लौटाना वाजिब है।
- दोनों क़ादों में पूरी अत्तहीय्यात पढ़ना और जितने क़ादे करने पड़ें सब में पूरी अत्तहीय्यात वाजिब है। एक लफ़्ज़ भी अगर छोड़ेगा तो वाजिब छूट जायेगा।
- सलाम फेरते वक़्त लफ़्ज़ ‘अस्सलामु’ दो बार कहना वाजिब है और लफ़्ज़ ‘अलैकुम व रहमातुल्लाह ’ वाजिब नहीं।
- वित्र में दुआ-ए-क़ुनूत पढ़ना।
- दुआ-ए-कुनूत से पहले तकबीर कहना।
- ईद की नमाज़ों की छः(6) तकबीरें।
- ईदैन में दूसरी रकअत के रुकू की तकबीर कहना।
- इस तकबीर के लिये लफ़्ज़ “अल्लाहु अकबर” होना।
- हर जहरी (यानि फ़ज्र, मग़रिब और इशा की) नमाज़ में इमाम को ऊँची आवाज़ से क़िरात करना।
- ग़ैर जहरी (यानि ज़ुहर और अस्र) में आहिस्ता पढ़ना वाजिब है।
- वाजिब व फ़र्ज़ों का उसकी जगह पर होना।
- रुकू का हर रकअत में एक ही बार होना मतलब एक से ज़्यादा रुकू न करना।
- सुजूद का दो ही बार होना यानि दो से ज़्यादा सजदे न करना।
- दूसरी रकअत से पहले क़ादा न करना।
- चार रकअत वाली नमाज़ में तीसरी रकअत पर क़ादा न होना।
- आयते सजदा पढ़ी हो तो सजदा-ए-तिलावत करना।
- भूले से ग़लती होने पर सजदा-ए-सहव करना।
- दो फ़र्ज़ या दो वाजिब या वाजिब व फ़र्ज़ के दरमियान तीन बार सुब्हानल्लाह कह लेने के बराबर देर न होना ।
- इमाम जब क़िरात करे ऊँची आवाज़ से हो या आहिस्ता उस वक़्त मुक़तदी का चुप रहना।
- क़िरात के अलावा तमाम वाजिबात में इमाम की पैरवी करना।