सदक़ा-ए- फ़ित्र

सदक़ा-ए- फ़ित्र

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بِسْمِ اللّٰہِ الرَّحْمٰنِ الرَّحِیۡمِ

हर वह शख़्स जिस के पास अपनी अस्ल हाजत से ज़्यादा माल या सामान है उस पर सदक़ा-ए-फ़ित्र वाजिब है। यह रोज़ों का सदक़ा है। इसे ईद की नमाज़ से पहले अदा कर देना चाहिये क्योंकि जब तक फ़ितरा अदा न किया जाये तो रोज़े आसमान और ज़मीन के बीच मुअल्लक़ रहते हैं।       

सदका-ए-फ़ित्र के बारे में नबी-ए-करीमگ की कुछ अहादीस-

  • रसूलुल्लाह گ ने ज़काते फ़ित्र एक साअ खजूर या जौ, ग़ुलाम व आज़ाद मर्द व औरत छोटे और बड़े मुसलमान पर मुक़र्रर की और यह हुक्म फ़रमाया कि (ईद की) नमाज़ को जाने से पहले अदा कर दे। (साअः अरब में नापने का पैमाना या यूनिट)

(सही बुख़ारी व मुस्लिम में अब्दुल्लाह इब्ने उमरک से मरवी कि)

  • अपने रोज़े का सदक़ा अदा करो इस सदक़े को रसूलुल्लाह گ ने मुक़र्रर फ़रमाया एक साअ ख़ुर्मा या जौ या आधा साअ गेहूँ।

(अबू दाऊद व नसई की रिवायत में है कि अब्दुल्लाह इब्ने अब्बासک ने आख़िर रमज़ान में फ़रमाया)

  • हुज़ूर अक़दस گने एक शख़्स को भेजा कि मक्का के कूचों में ऐलान कर दे कि सदक़ा-ए-फ़ित्र वाजिब है।

(तिर्मिज़ी शरीफ़ में ब-रिवायते अम्र इब्ने शुऐब अन अबीहे अन जद्देही)

  • रसूलुल्लाह گ ने ज़काते फ़ित्र मुक़र्रर फ़रमाई कि लग़्व और बेहूदा कलाम से रोज़े की तहारत हो जाए और मिस्कीनों की ख़ुरिश (ख़ुराक वग़ैरा) हो जाए।

(अबू दाऊद व इब्ने माजा व ह़ाकिम इब्ने अब्बासک से मरवी)

  • हुज़ूर گ ने फ़रमाया कि बन्दे का रोज़ा आसमान व ज़मीन में मुअल्लक़ (लटका) रहता है जब तक कि सदक़ा-ए-फ़ित्र अदा न करे।

(दैलमी व ख़तीब व इब्ने असाकिर अनसک से रिवायत)

 

 सदक़ा-ए-फ़ित्र के बारे में ज़रूरी मसाइल

सदक़ा-ए-फ़ित्र वाजिब है। इसे ईद की नमाज़ से पहले अदा करना मसनून (बेहतर) है। यह कभी साक़ित यानि ख़त्म नहीं होता और उम्र भर ज़िम्मे रहेगा जब तक अदा नहीं किया। अदा नहीं किया हो तो फ़ौरन अदा कर दें। इसकी क़ज़ा नहीं बाद में भी अदा ही है।

सदक़ा-ए-फ़ित्र कब वाजिब होता है?

  • ईद के दिन सुबह सादिक़ यानि फ़ज्र का वक़्त शुरू होते ही सदक़ा-ए-फ़ित्र वाजिब हो जाता है।
  • अगर कोई शख़्स सुबह सादिक़ होने से पहले मर गया तो फ़ितरा वाजिब नहीं हुआ लेकिन सुबह सादिक़ तुलू होने के बाद मरा तो उसका फ़ितरा अदा करना वाजिब है।
  • अगर कोई शख़्स ग़नी था सुबह सादिक़ होने से पहले फ़क़ीर हो गया तो फ़ितरा वाजिब नहीं हुआ, लेकिन सुबह सादिक़ तुलू होने के बाद फ़क़ीर हुआ तो फ़ितरा वाजिब हो गया।
  • इसी तरह कोई शख़्स फ़क़ीर था सुबह सादिक़ होने से पहले ग़नी हुआ तो उस पर फ़ितरा वाजिब है
  • अगर सुबह सादिक़ होने से पहले कोई काफ़िर मुसलमान हुआ या कोई बच्चा पैदा हुआ तो फ़ितरा वाजिब हो गया, लेकिन सुबह सादिक़ होने के बाद काफ़िर मुसलमान हुआ या बच्चा पैदा हुआ तो फ़ितरा वाजिब नहीं हुआ।

सदक़ा-ए-फ़ित्र किस पर वाजिब है?

  • सदक़ा-ए-फ़ित्र हर आज़ाद मुसलमान मालिक-ए-निसाब पर वाजिब है जिसकी निसाब हाजत-ए-असलिया से फ़ारिग़ हो यानि उसका माल उसकी अस्ल हाजत से ज़्यादा हो। उसमें आक़िल, बालिग़ और माल-ए-नामी यानि बढ़ने वाले माल का होना शर्त नहीं।
  • मालिक-ए-निसाबः मालिक-ए-निसाब होने का मतलब है कि किसी शख़्स के पास साढ़े बावन (5) तोला (यानि लगभग 612 ग्राम) चाँदी, उतनी रक़म या उतनी ही क़ीमत का माल व सामान उसकी अस्ल हाजत से ज़्यादा हो।
  • हाजत-ए-असलियाः वह चीज़ें जिनकी ज़िन्दगी बसर करने में आदमी को ज़रूरत होती है। उन चीज़ों पर ज़कात वाजिब नहीं जैसे रहने का मकान, सर्दियों और गर्मियों में पहनने के कपड़े, घर की ज़रूरत के सामान, सवारी या सवारी के जानवर, खिदमत के लिए लौंडी ग़ुलाम, आलाते हर्ब यानि लड़ाई के लिए हथियार, पेशावरों के औज़ार, इल्म वालों के लिए ज़रूरत की किताबें, खाने के लिए अनाज।
  • माल-ए-नामीः यानि बढ़ने वाला माल चाहे हक़ीक़त में बढ़े या हुक्मन यानि अगर बढ़ाना चाहे तो बढ़ाए और वह माल उसके या उसके नाइब के क़ब्ज़े में हो। जैसे सोना, चाँदी, तिजारत का माल, वह मकान, ज़मीन या प्लाट वग़ैरा जो किराये पर देने के लिये या फ़ायदा लेकर बेचने के लिये हो, चराई पर छूटे जानवर।
  • सदक़ा-ए-फ़ित्र अदा करना शख़्स पर वाजिब है उसके माल पर नहीं लिहाज़ा मर गया तो उसके माल से अदा नहीं किया जाएगा लेकिन अगर वारिस एहसान के तौर पर अपनी तरफ़ से अदा करें तो हो सकता है, उन पर कोई ज़बरदस्ती नहीं है। लेकिन अगर वसीयत कर गया है तो तिहाई माल से ज़रूर अदा किया जाएगा चाहे वारिस राज़ी न हों।
  • नाबालिग़ या मजनून (पागल) अगर मालिक-ए-निसाब है तो उन पर सदक़ा-ए-फ़ित्र वाजिब है उनका वली उनके माल से अदा करे अगर वली ने अदा नहीं किया और नाबालिग़ बालिग़ हो गया या पागल का पागलपन जाता रहा तो अब यह ख़ुद अदा कर दें और अगर यह ख़ुद मालिक-ए-निसाब न थे और वली ने अदा न किया तो बालिग़ होने या होश में आने पर उनके ज़िम्मे अदा करना नहीं।
  • सदक़ा-ए-फ़ित्र अदा करने के लिए माल का बाक़ी रहना भी शर्त नहीं माल नहीं रहा जब भी सदक़ा-ए-फ़ित्र वाजिब रहेगा साक़ित न होगा जबकि ज़कात व उश्र माल हलाक हो जाने से साक़ित हो जाते हैं।
  • मर्द मालिक-ए-निसाब पर अपने और अपने छोटे बच्चों की तरफ़ से फ़ितरा अदा करना वाजिब है, जबकि बच्चा ख़ुद मालिक-ए-निसाब न हो वरना उसका फ़ितरा उसी के माल से अदा किया जाए।
  • मजनून औलाद चाहे बालिग़ हो लेकिन ग़नी न हो तो उसका सदक़ा-ए-फ़ित्र उसके बाप पर वाजिब है और ग़नी हो तो ख़ुद उसके माल से अदा किया जाए, जुनून चाहे असली हो यानि उसी हालत में बालिग़ हुआ या बाद को हुआ दोनों का एक हुक्म है।
  • सदक़ा-ए-फ़ित्र वाजिब होने के लिए रोज़ा रखना शर्त नहीं अगर किसी उज़्र, सफ़र, मर्ज़ या बुढ़ापे की वजह से या मआज़ल्लाह बिला उज़्र रोज़ा न रखा जब भी वाजिब है।
  • बाप न हो तो दादा बाप की जगह है यानि अपने ग़रीब व यतीम पोता-पोती की तरफ़ से उस पर सदक़ा-ए-फ़ित्र देना वाजिब है।
  • माँ पर अपने छोटे बच्चों की तरफ़ से सदक़ा-ए-फ़ित्र देना वाजिब नहीं।
  • अपनी औरत और औलाद आक़िल, बालिग़ का फ़ितरा उसके ज़िम्मे नहीं अगर्चे अपाहिज हों अगर्चे उसके ख़र्चे उसके ज़िम्मे हों।
  • औरत या बालिग़ औलाद का फ़ितरा उनके बग़ैर इजाज़त अदा कर दिया तो अदा हो गया बशर्ते कि औलाद का ख़र्चा वग़ैरा उसके ज़िम्मे हो वरना औलाद की तरफ़ से बिना इजाज़त अदा नहीं होगा।
  • औरत ने अगर शौहर का फ़ितरा बग़ैर हुक्म अदा कर दिया अदा नहीं हुआ।
  • माँ-बाप, दादा-दादी नाबालिग़ भाई और दूसरे रिश्तेदारों का फ़ितरा इसके ज़िम्मे नहीं और बग़ैर हुक्म अदा भी नहीं कर सकता।

सदक़ा-ए-फ़ित्र कितना अदा करें?

  • सदक़ा-ए-फ़ित्र गेहूँ या उसका आटा या सत्तू आधा साअ और खजूर या मुनक़्क़ा या जौ या उसका आटा या सत्तू एक साअ मुक़र्रर है।
  • आमतौर पर सदक़ा-ए-फ़ित्र गेहूँ के वज़न के हिसाब से अदा किया जाता है जो 2 किलो 45 ग्राम गेहूँ या आटा या उसके बराबर रक़म है।

(नोटः- गेहूँ का वज़न उसकी क्वालिटी के हिसाब से कम या ज़्यादा हो सकता है लिहाज़ा सदक़ा-ए-फ़ित्र की अदायगी के वक़्त यह ख़्याल रखना चाहिये कि थोड़ा ज़्यादा हो जाये, पर कम न हो क्योंकि कम होने की सूरत में सदक़ा-ए-फ़ित्र अदा ही नहीं होगा)

ज़रूरी मसाइल

  • गेहूँ और जौ देने के बजाय उनका आटा देना अफ़ज़ल है और उससे भी अफ़ज़ल यह कि उसकी क़ीमत दे दें। क़ीमत अदा करने में इसका लिहाज़ रखें कि बेहतरीन क़िस्म के गेहूँ वग़ैरा की क़ीमत दें।
  • इन चार चीज़ों के अलावा अगर दूसरी चीज़ों से फ़ितरा अदा करना चाहे मसलन चावल, ज्वार, बाजरा या और कोई ग़ल्ला या और कोई चीज़ देना चाहे तो क़ीमत का लिहाज़ करना होगा यानि वह चीज़ आधे साअ गेहूँ या एक साअ जौ की क़ीमत की हो यहाँ तक कि रोटी दें तो उसमें भी क़ीमत का लिहाज़ किया जाएगा अगर्चे गेहूँ या जौ की हो।
  • फ़ितरे का वाजिब होने से पहले एडवांस में देना भी जाइज़ है जबकि वह शख़्स मौजूद हो जिसकी तरफ़ से अदा किया जा रहा हो चाहे रमज़ान से पहले अदा कर दे और अगर फ़ितरा अदा करते वक़्त मालिक-ए-निसाब न था फिर हो गया तो फ़ितरा सही है और बेहतर यह है कि ईद की सुबह सादिक़ होने बाद और ईदगाह जाने से पहले अदा कर दे।
  • एक शख़्स का फ़ितरा एक मिस्कीन को देना बेहतर है और एक से ज़्यादा मिस्कीनों को भी दे दिया जब भी जाइज़ है इसी तरह एक मिस्कीन को एक से ज़्यादा लोगों का फ़ितरा देना भी जाइज़ है अगर्चे सब फ़ितरे मिले हुए हों।
  • शौहर ने औरत को अपना फ़ितरा अदा करने का हुक्म दिया उसने शौहर के फ़ितरे के गेहूँ अपने फ़ितरे के गेहूँ में मिला कर फ़क़ीर को दे दिए और शौहर ने मिलाने का हुक्म न दिया था तो औरत का फ़ितरा अदा हो गया शौहर का नहीं मगर जबकि मिला देने पर उर्फ़ जारी हो यानि ऐसा होता रहता हो तो शौहर का भी अदा हो जाएगा।
  • औरत ने शौहर को अपना फ़ितरा अदा करने की इजाज़त दी, उसने औरत के गेहूँ अपने गेहूँ में मिलाकर सब की नीयत से फ़क़ीर को दे दिए जाइज़ है।
  • अपने ग़ुलाम की औरत को फ़ितरा दे सकते हैं चाहे उसका ख़र्चा उसी पर हो।

सदक़ा-ए-फ़ित्र किन लोगों को दिया जा सकता है किन को नहीं-

अल्लाह तआला फ़रमाता है:-

اِنَّمَا الصَّدَقٰتُ لِلْفُقَرَآءِ وَالْمَسٰکِیۡنِ وَ الْعٰمِلِیۡنَ عَلَیۡہَا وَالْمُؤَلَّفَۃِ قُلُوۡبُہُمْ وَفِی الرِّقَابِ

وَالْغٰرِمِیۡنَ وَفِیۡ سَبِیۡلِ اللّٰہِ وَابْنِ السَّبِیۡلِ ؕ فَرِیۡضَۃً مِّنَ اللّٰہِ ؕ وَاللّٰہُ عَلِیۡمٌ حَکِیۡمٌ ﴿﴾۶۰

तर्जमा: अमवाल-ए-ज़कात सिर्फ़ फ़क़ीरों और मिस्कीनों के लिये हैं और जो उन्हें वुसूल करने पर मुक़र्रर किये गये और जिन के दिलों को इस्लाम से मानूस करना मक़सूद हो और (ग़ुलामी से) गर्दनें आजाद कराने में और क़र्ज़दारों के लिये और अल्लाह की राह में और मुसाफ़िरों के लिये मुक़र्रर किये हुए (सदक़ात) हैं अल्लाह की तरफ़ से और अल्लाह बहुत जानने वाला बड़ी हिकमत वाला है।

 

 रसूलुल्लाहگ ने फ़रमाया कि-

  • अल्लाह तआला ने सदक़ात को नबी या किसी और के हुक्म पर नहीं रखा बल्कि उसने ख़ुद इसका हुक्म बयान फ़रमाया और इसके आठ हिस्से किये।                         

(सुनने अबू दाऊद में ज़्याद इब्ने हारिस सुदाईک से मरवी)

  • सदक़ा-ए-मफ़रूज़ा (जो सदक़ा फ़र्ज़ हो जैसे ज़कात) में औलाद और वालिद का हक़ नहीं।

(बैहक़ी ने ह़ज़रत मौला अलीک से रिवायत की)

  • आले मुह़म्मदگ के लिए सदक़ा जाइज़ नहीं कि यह तो आदमियों के मैल हैं।

(इमाम अहमद व मुस्लिम मुत्तलिब इब्ने रबीआک से रावी)

  • हुज़ूरگ ने फ़रमाया अल्लाह तआला ने मुझ पर और मेरे अहले बैत पर सदक़ा ह़राम फ़रमा दिया।       

(इब्ने सआद की रिवायत इमाम हसन मुजतबाک  से)

इन लोगों को सदक़े दिये जा सकते हैं-

फ़क़ीरः– फ़क़ीर वह शख़्स है जिस के पास कुछ हो मगर इतना न हो कि निसाब को पहुँच जाए या निसाब के बराबर हो भी तो उसकी अस्ल हाजत पूरी करने के लायक़ हो जैसे रहने के लिये मकान, पहनने के कपड़े ख़िदमत के लिये लौंडी, ग़ुलाम। इल्मी शुग़्ल रखने वाले की दीनी किताबें जो उसकी हाजत से ज़्यादा न हों। इसी तरह कर्ज़दार है और क़र्ज़ निकालने के बाद निसाब बाक़ी न रहे तो फ़क़ीर है अगर्चे उसके पास इतना माल हो कि एक तो क्या कई निसाब हो जायें।

मिस्कीनः– मिस्कीन वह है जिसके पास कुछ न हो यहाँ तक कि खाने और बदन छिपाने के लिये इसका मोहताज है कि लोगों से सवाल करे।

आमिलः– आमिल वह है जिसे ज़कात वुसूल करने के लिए मुक़र्रर किया जाता है। आमिल को सदक़ा-ए-फ़ित्र नहीं दे सकते

रिक़ाबः– रिक़ाब उस ग़ुलाम को कहते हैं जिसे मालिक ने यह कह दिया हो कि रुपया दे दो तो तुम आज़ाद हो। तो उसे सदक़े के रुपये इसलिये देना कि अपने आप को आज़ाद करा सके और ग़ुलामी से अपनी गर्दन रिहा करे।

ग़ारिमः– ग़ारिम से मुराद क़र्ज़दार है यानि उस पर इतना क़र्ज़ा हो कि उसे निकालने के बाद निसाब बाक़ी न रहे अगर्चे उसका औरों पर बाक़ी हो मगर लेने पर क़ादिर न हो मगर शर्त यह है कि क़र्ज़दार हाशिमी न हो।

फ़ीसबीलिल्लाहः– फ़ीसबीलिल्लाह यानि राहे ख़ुदा में ख़र्च करना। जैसे जिहाद के लिये, इल्म-ए-दीन पढ़ने या पढ़ाने वाले के लिये या इसी तरह हर नेक बात में फ़ितरा या ज़कात ख़र्च करना फ़ीसबीलिल्लाह है जबकि ब-तौरे तमलीक हो कि बग़ैर तमलीक फ़ितरा या ज़कात अदा नहीं हो सकती।   

इब्नुस्सबीलः–  वह मुसलमान मुसाफ़िर जिसके पास माल नहीं रहा फ़ितरा ज़कात ले सकता है अगर्चे इसके घर पर माल मौजूद हो मगर उतना ही ले जिससे हाजत पूरी हो जाये ज़्यादा की इजाज़त नहीं, इसी तरह अगर मालिके निसाब ने अपना माल किसी को क़र्ज़ दे दिया और अभी वह क़र्ज़ वापस मिलने की कोई उम्मीद नहीं तो वह भी अस्ल हाजत के लिये फ़ितरा या ज़कात ले सकता है।

ज़रूरी मसाइल

  • सदक़ा-ए-फ़ित्र ऊपर दिये गये लोगों को दिया जा सकता है सिवाय उन लोगों के जो ज़कात लेने के लिये मुक़र्रर किये जाते हैं जिन्हें आमिल कहते हैं। उनके लिए ज़कात है फ़ितरा नहीं।
  • फ़क़ीर अगर आलिम हो तो उसे देना जाहिल को देने से अफ़ज़ल है। मगर आलिम को देने में अदब का लिहाज़ रखें, जैसे छोटे बड़ों को नज़र देते हैं और मआज़ अल्लाह आलिम-ए-दीन की हिक़ारत (ज़िल्लत) अगर दिल में आई तो यह हलाकत और बर्बादी है।
  • मिस्कीन यानि जिसके पास कुछ न हो यहाँ तक कि खाने और बदन छिपाने के लिये भी कुछ नहीं उसे सवाल (यानि मांगना) हलाल है फ़क़ीर को सवाल नाजाइज़ क्योंकि जिसके पास खाने और बदन छिपाने को हो उसे बग़ैर ज़रूरत व मजबूरी सवाल हराम है।
  • बहुत से लोग फ़ितरा या ज़कात इस्लामी मदारिस को देते हैं उनको चाहिये कि मदरसे के मुतवल्ली को बता दें ताकि मुतवल्ली उस माल को अलग रखे और दूसरे माल में न मिलाये और सिर्फ़ ग़रीब तलबा पर ख़र्च करे किसी काम की मज़दूरी वग़ैरा में न दे वरना ज़कात अदा नहीं होगी।
  • बहू और दामाद और सौतेली माँ या सौतेले बाप या बीवी की औलाद या शौहर की औलाद को दे सकते हैं और रिश्तेदारों में जिसका ख़र्चा इसके ज़िम्मे वाजिब है उसे भी फ़ितरा व ज़कात दे सकते हैं जबकि ख़र्चे में शुमार न करे।
  • सही तन्दरुस्त को दे सकते हैं अगर्चे कमाने पर क़ुदरत रखता हो मगर सवाल करना इसे जाइज़ नहीं।
  • ग़नी मर्द के नाबालिग़ बच्चे को भी नहीं दे सकते और ग़नी की बालिग़ औलाद को दे सकते हैं जबकि फ़क़ीर हों।
  • माँ हाशिमी बल्कि सैदानी हो और बाप हाशिमी न हो तो वह हाशिमी नहीं कि शरा में नस्ब बाप से है। लिहाज़ा ऐसे शख़्स को दे सकते हैं अगर कोई दूसरी रुकावट न हो।
  • जिन लोगों के बारे में बयान किया गया कि इन्हें फ़ितरा ज़कात दे सकते हैं उन सब का फ़क़ीर होना शर्त है।
  • अगर बिना सोचे समझे दे दिया यानि यह ख़्याल नहीं आया कि इसे दे सकते हैं या नहीं और बाद में मालूम हुआ कि इसे नहीं दे सकते थे तो अदा न हुई।

सदक़ा-ए-फ़ित्र व ज़कात वग़ैरा क़रीबी रिश्तेदारों को देना अफ़ज़ल

  • सदक़ा-ए-फ़ित्र व ज़कात वग़ैरा सदक़ात में अफ़ज़ल यह है कि पहले अपने भाइयों बहनों को दें, फिर इनकी औलाद को, फिर चचा और फूफियों को, फिर इनकी औलाद को, फिर मामू और ख़ाला को, फिर इनकी औलाद को, फिर रिश्ते वालों को, फिर पड़ोसियों को, फिर अपने पेशा वालों को, फिर अपने शहर या गाँव के रहने वालों को।
  • हदीस में है कि नबीگ ने फ़रमाया- “ऐ उम्मते मुह़म्मद! क़सम है उसकी जिसने मुझे ह़क़ के साथ भेजा अल्लाह तआला उस शख़्स के सदक़े को क़बूल नहीं फ़रमाता जिसके रिश्तेदार उसके सुलूक करने के मोहताज हों और यह ग़ैरों को दे। क़सम है उसकी जिसके दस्ते क़ुदरत में मेरी जान है अल्लाह तआला उसकी तरफ़ क़यामत के दिन नज़रे रह़मत नहीं फ़रमायेगा”

इन लोगों को सदक़ा यानि फ़ितरा ज़कात वग़ैरा नहीं दे सकते

  • बनी हाशिम जैसे सय्यद वग़ैरा को सदक़ात जैसे फ़ितरा व ज़कात वग़ैरा नहीं दे सकते न ग़ैर उन्हें दे सकता है और न ही एक हाशिमी दूसरे हाशिमी को। बनी हाशिम से मुराद हज़रत अली करम अल्लाह वजहु व हज़रत जाफ़र व अक़ील और हज़रत अ़ब्बास ک व हारिस इब्ने अब्दुल मुत्तलिब की औलाद हैं।
  • बनी हाशिम के आज़ाद किये हुए ग़ुलामों को भी नहीं दे सकते तो जो ग़ुलाम उनकी मिल्क में हैं उन्हें देना तो और भी ज़्यादा नाजाइज़ है।
  • अपने माँ-बाप, दादा-दादी, नाना-नानी जिनकी औलाद में यह है उनको फ़ितरा व ज़कात नहीं दे सकते और इसी तरह अपनी औलाद जैसे बेटा-बेटी, पोता-पोती, नवासा-नवासी को भी नहीं दे सकते। सदक़ा-ए-नफ़्ल दे सकते हैं बल्कि देना बेहतर है।
  • माँ-बाप मोहताज हों और किसी बहाने से उन्हें देना चाहता है कि किसी फ़क़ीर को दे दे, फिर वह फ़क़ीर उन्हें दे यह मकरूह है। इसी तरह हीला कर के अपनी औलाद को देना भी मकरूह है।
  • जो शख़्स मालिके निसाब है उसके ग़ुलाम को भी नहीं दे सकते चाहे ग़ुलाम अपाहिज हो और उसका मालिक खाने को भी नहीं देता हो।
  • बदमज़हब को सदक़ा-ए-फ़ित्र व ज़कात देना जाइज़ नहीं।
  • जिसे सवाल जाइज़ नहीं उसके सवाल पर देना भी नाजाइज़। देने वाला भी गुनाहगार होगा।
  • मुस्तहब यह है कि एक शख़्स को इतना दें कि उस दिन उसे किसी और से सवाल की हाजत न पड़े।

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