2. रोज़ा

2. रोज़ा

दीन-ए-इस्लाम  के पाँच सुतूनों (Pillars) में से रोज़ा एक सुतून है । रोज़े का मतलब है ख़्वाहिशात से अपने आप को रोकना । रोज़े की बहुत बड़ी शान यह है कि अल्लाह तआला ने इसे अपनी तरफ़ निसबत करते हुए फ़रमाया कि “रोज़ा मेरे लिये है और मैं ही इसकी जज़ा यानि बदला दूँगा”  रोज़े के तीन दर्जे हैं- एक आम लोगों का रोज़ा यह है कि पेट और शर्मगाह को खाने पीने, जिमा (हमबिस्तरी) से रोकना । यह रोज़े का सबसे निचला दर्जा है । दूसरा ख़ास लोगों का रोज़ा यह है कि इसमें पेट और शर्मगाह को रोकने के साथ-साथ कान, आँख, ज़ुबान, हाथ, पाँव और जिस्म के सारे आज़ा (organs) को गुनाह से बचाना है । यह रोज़े का दरमियानी दर्जा है । तीसरा ख़ासुलख़ास का रोज़ा, इसमें अल्लाह तआला के अलावा सब चीज़ों से अपने आपको पूरी तरह अलग करके सिर्फ़ उसी की तरफ़ ध्यान लगाना है । यह रोज़े का सबसे ऊँचा दर्जा है । हर मुसलमान को चाहिये कि रोज़ा रखने में कम से कम दरमियानी दर्जा हासिल करे । हर बालिग़ और समझदार मुसलमान पर रमज़ान के महीने के रोज़े फ़र्ज़ किये गए है । लिहाज़ा हमें चाहिये कि रोज़े के बारे में ज़रूरी जानकारी हासिल करें और इसके मसाइल को जानें ताकि इस फ़र्ज़ इबादत को सही तरह अदा कर सकें ।  रोज़े के बारे में ज़रूरी जानकारी इस तरह है –